यातायात व्यवस्था के प्रति आखिर क्यों गंभीर नहीं हैं मऊ के जनप्रतिनिधि, नगर पालिका और स्थानीय प्रशासन, हज़ारों गाड़ियों के हुजूम से शहर का काफिया तंग, परेशान हैं जनता जनार्दन
फजलुर्रहमान अंसारी
मऊ जिला मुख्यालय के निर्माण के बाद मऊ नगरवासियों के गुमान में भी यह बात नहीं रही होगी कि जमाने की गर्दिश के साथ उनके शहर का काफिया कभी इतना तंग हो जायेगा और उसके यातायात की व्यवस्था दिन-प्रतिदिन इस कदर संगीन और तकलीफदेह हो जाएगी जिसमें उनका सांस लेना तक दूभर हो जायेगा। परिस्थिति ये है कि कलेक्ट्रेट से लेकर गाजीपुर तिराहा, भीटी, आजमगढ़ मोड़ और फिर खासतौर से शहर के पश्चिमी क्षेत्र मिर्जाहादीपुरा चौक जैसी कोई ऐसी व्यस्ततम जगह बाकी नहीं है जहां हजारों की संख्या में छोटी-बड़ी गाड़ियों का सैलाब लोगों की राह रोके न खड़ा हो जिसके चलते शहर की सभी शाहराहों पर लगने वाले लम्बे जाम के कारण आम नगरवासियों को न केवल दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है बल्कि अनावश्यक रूप से लोगों का काफी समय बरबाद होने के सबब इस महान औद्योगिक नगरी के आर्थिक और व्यापारिक हितों को भी ज़ोरदार झटका लग रहा है क्योंकि रोजमर्रा के इस जाम के चलते जो काम आधे घण्टे में मुकम्मल होना था, अब वह घण्टों में अंजाम पा रहा है। शहर की एक बड़ी मुसीबत तो यह भी है कि इसके लगभग सभी बैंक और सरकारी व गैर-सरकारी अस्पताल सामान्य रूप से शहर के सार्वजनिक मार्गाें पर ही स्थित हैं जहां बड़ी तादाद में लोगों का समूह और दायें-बायें खड़ी सैकड़ों छोटी-बड़ी गाड़ियां भी इस कष्टदायक जाम के खास कारणों में शामिल हैं। इसी प्रकार, सुब्ह होते ही जिले के समस्त ग्रामीण क्षेत्रों के हजारों मजदूर और आम जन जिला मुख्यालय का ही रूख करते हैं जिनके वाहनों, बाईकों और हजारों साईकिलों के हुजूम से अमूमन शहर की शाहराहें भरी-पटी रहती हैं।
मुश्किल यह भी है कि शहर में ई-रिक्शा की तादाद तकरीबन् 2500 बताई जा रही है जिसमें प्रतिदिन इजाफा भी इसलिये हो रहा है कि लाकडाऊन के सबब व्याप्त आम बेकारी, बेरोजगारी और रोजगार के अवसर पूर्णतः समाप्त हो चुके हैं जिसके चलते अक्सर नौजवान बैंकों से कर्ज लेकर एक रिक्शा खरीदते और फिर उसे लाकर शहर की तंग शाहराह पर डाल देते हैं जो चींटियों की कतार की भांति शहर की इकलौती सड़क पर रेंगते और कछुवे की चाल से अपना रास्ता तय करते नजर आते हैं जिनके लगातार आवागमन से लोगों का सड़क पार करना तक दुश्वार हो गया है। कभी-कभार तो गभ्भीर मरीजों को समय से अस्पताल पहुंचाना भी मुहाल हो जाता है। सबसे बुरा हाल तो मिर्जाहादीपुरा चौक का है जहां से प्रतिदिन हजारों छोटी-बड़ी गाड़ियों का गुजर होेता है जिसकी दोनों पटरियों पर सैकड़ोंफल और सब्जीफरोशों का मुकम्मल कब्जा है लेकिन नगरपालिका, स्थानीय पुलिस या लोकल प्रशासन को कण मात्र भी ट्रैफिक की इस दुर्व्यवस्था की कोई चिन्ता नही है और लोगों को समझ में ये नहीं आता कि आखिर उन्हें शहर या जिले की किस अथारिटी की इजाज़त या रजामन्दी हासिल है जिसके बल पर वे बेखौफ होकर न केवल सड़क की पटरी बल्कि अक्सर आधी सड़क तक ठेला और खांचा लगाकर आम राहगीरों का चलना-फिरना दूभर किये हुये हैं।
याद रहे कि मऊ जनपद का सृजन 1988 में दिवंगत कल्पनाथ राय के दौर में हुआ था। उसी दौर में कलेक्ट्रेट की इमारतें और आफिसर्स कॉलोनीज़ तो बन गईं लेकिन भविष्य में इस शहर को पेश आने वाली गभ्भीर समस्याओं और ट्रैफिक की व्यवस्था से संबंधित कोई मन्सूबाबन्दी इसलिये नहीं हो पाई कि दि0 रहनुमा ही इस संसार को अलविदा कह गये और फिर उसके बाद मऊ शहर को कोई प्रभावशाली नेतृत्व नसीब नहीं हुआ। हालांकि यह शहर चार विधायक, एक सांसद और कई राज्यमंत्रियों तक की राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र है लेकिन बदकिस्मती से उनमें से किसी का जनता और उसके हितों से कोई लेना-देना नहीं रहा और इन जनप्रतिनिधियों में से तो अक्सर लम्बे समय से जेल में हैं जिसके परिणामस्वरूप इस शहर को अनार्थ जीवन गुज़ारना पड़ रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि अगर सम्पूर्ण रूप से नहीं तो कम से कम आंशिक रूप से ही सही जनता को राहत पहुंचाने के लिये मऊ के इन चुने हुये रहनुमाओं को कोई कदम तो उठाना ही चाहिये।
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